धर्मेंद्र कुमार
नई दिल्ली,
मंगलवार,
सितंबर 2,
2008
बिहार अब तक की सबसे बड़ी आपदा का सामना कर रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को कंधों पर लिए गर्दन तक भरे पानी से होकर गुजरते लोगों की तस्वीरें टीवी पर लगातार दिखाई जा रही हैं। वेबसाइटों और अखबारों के पन्ने बाढ़ की कहानियों से भरे पड़े हैं। देशभर से कई समाजसेवी संगठन और लोग मदद के लिए आगे आ रहे हैं। राहत सामग्री भेजी जा रही है। कुल मिलाकर जिंदगी बचाने के लिए जद्दोजहद जारी है। और हां... जीत हमेशा की तरह मानव की ही होने वाली है। लेकिन, कुछ सवाल उभर रहे हैं...
क्या बचा जा सकता था इस आपदा से? शायद हां। कहने को तो हम दोषी ठहरा सकते हैं कमजोर आपदा प्रबंधन और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को...लेकिन, इस त्रासदी के लिए पड़ोसी देशों के साथ हमारी विदेश नीति भी कम जिम्मेदार नहीं है।
कभी 'छोटे भाई' का दर्जा पाए और हाल ही में कुछ 'गैर-जिम्मेदाराना' व्यवहार का प्रदर्शन करता हुआ नेपाल भी आपदा की इस घड़ी में दूर खड़ा ताली बजाता-सा दिख रहा है। उस पर नेपाली सरकार का यह बयान कि बाढ़ को रोक सकने में सक्षम बांध की मरम्मत का सारा दारोमदार तो भारत पर है, नेपाल क्या कर सकता है।
अगर हम अपने गिरेबां में झांकें तो संभवत: इस त्रासदी के बीज शायद सात साल पहले नेपाल के राजमहल में हुए नरसंहार के दौरान ही बोए जा चुके थे। बात है तो बड़ी अजीब सी...लेकिन कहीं न कहीं सच भी लगती है।
चलिए... केवल सात साल पुराने इतिहास के आइने में झांक कर देखने का प्रयास करते हैं। राजमहल में राजा बीरेंद्र विक्रम शाह और उनके परिवार की 'रहस्यमयी' मौत के बाद की नेपाली राजनीति पर एक नजर डालते हैं। राजा बीरेंद्र विक्रम शाह और युवराज दीपेंद्र की मौत के बाद ज्ञानेंद्र राजा बने और उनके साहबजादे पारस युवराज बने। ऐसा लगने लगा कि नेपाल में एक राजा गया और दूसरे ने शासन की बागडोर संभाल ली है। भारतीय विदेश नीति के तत्कालीन कर्ता-धर्ताओं ने बदलती दुनिया पर गौर न करते हुए राजा ज्ञानेंद्र को आधिकारिक मान्यता दे दी। पूरी दुनिया में लोकतंत्र की पैरवी करने वाले भारत ने एक राजा या यह कहें कि एक नए 'तानाशाह' को बिना शर्त समर्थन दे डाला।
उस वक्त बजाय इसके नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट होने में मदद दी जा सकती थी। भारत अपने प्रभाव का उपयोग वहां इस काम में कर सकता था। इससे कमजोर होते नेपाली राजनीतिक दलों को भारत के रूप में एक पालनहार नजर आता। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। समय प्रवाह के चलते राजा ज्ञानेंद्र और नेपाली राजनीतिक दलों का ढांचा और कमजोर होता चला गया। और, मौका मिला लगातार संघर्ष कर रहे माओवादियों को। कमजोर राजनीतिक दलों के खिलाफ लगातार मजबूत हो रहे माओवादी राजा ज्ञानेंद्र को बेदखल करते हुए सत्ता में लौटे। हुआ वही जिसकी माओवादियों से आशंका थी। प्रधानमंत्री प्रचंड ने पद संभालते ही भारत के बजाय पहले चीन की यात्रा करने की घोषणा की। और चीन हो भी आए। हालांकि, उनका भारत दौरा भी प्रस्तावित है।
बिहार में आई बाढ़ के समय को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। अपने यहां बदतर होती स्थिति का हवाला देते हुए नेपाल लगातार इस क्षेत्र में पानी छोड़ रहा है। पहले ऐसी नौबत कभी नहीं आई। अभी भारत सरकार को बाढ़ की आपदा से लोगों को बचाने का ही काम नहीं, बल्कि और भी कई आफतों से दो-चार होना है। बाढ़ के बाद बीमारियां फैलने की पूरी आशंका है। करीब 75 फीसदी लोग बाढ़ग्रस्त क्षेत्र से बाहर निकल चुके हैं। बाकी के लोग जानमाल की हिफाजत के लिए वहीं डटे हुए हैं। लेकिन, जब बीमारियां फैलेंगी तो कितने और लोगों को वहां से विस्थापित होना पड़ेगा, कहना मुश्किल है।
जानकारों के अनुसार बाढ़ग्रस्त क्षेत्र को लेकर सबसे बड़ी आशंका इसके भौगोलिक महत्व को लेकर है। 16 जिले यानी क्षेत्रफल के हिसाब से करीब आधे बिहार का यह क्षेत्र भारत के साथ खुली सीमाओं वाले पड़ोसी देश नेपाल के अलावा बांग्लादेश को भी छूता है। घुसपैठ करने वाले तत्वों के लिए यह क्षेत्र अब लगभग 'खुला दरबार' हो सकता है। माओवादियों और नक्सलियों के लिए अपनी गतिविधियों को चलाने के लिए आवश्यक भूमि की पूर्ति यहां से हो सकती है। यहां यह कहने की भी जरूरत नहीं है कि इस काम में उनकी मदद और कौन से पड़ोसी देश कर सकते हैं। यह माना जा सकता है कि 'छोटा भाई' अपने शब्दों में अब बराबरी का दर्जा चाहता है। और, इसके लिए उसे अपने 'बड़े भाई' की गोद से छिटकने से भी गुरेज नहीं है।
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